Divya
Material type:
- 9788180314971
- 891.433 YAS
Item type | Current library | Collection | Call number | Copy number | Status | Date due | Barcode | |
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Indian Institute of Management LRC General Stacks | Hindi Book | 891.433 YAS (Browse shelf(Opens below)) | 1 | Available | 008175 |
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मार्क्सवादी चिन्तक और वैचारिक प्रतिबद्धता को बुद्धि का सर्वश्रेष्ठ अनुशासन माननेवाले कथाकार यशपाल के सरोकारों में भारतीय सामाजिक संरचना में स्त्री की यातना और व्यक्तित्व का प्रश्न हमेशा प्रमुख रहा है।
‘दिव्या’ (1945) में यशपाल ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्त्री की पीड़ा के सामाजिक कारणों की तलाश करते हैं। उनका मानना है कि ‘इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है।...अतीत में अपनी रचनात्मक सामर्थ्य और परिस्थितियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती हैं।’ ‘दिव्या’ में लेखक सागल के गणसमाज को केन्द्र में रखकर पृथुसेन, मारिश और दिव्या के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक अन्तर्विरोधों की गहन पड़ताल करता है। न तो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सामन्ती समाज ही स्त्री को सम्मान और सुरक्षा दे सकता है और न बौद्ध धर्म जो स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व को ही शंका की निगाह से देखता है।
अपनी प्रदत्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ‘दिव्या’ सामाजिक संरचना के मूल अन्तर्विरोधों को रेखांकित करते हुए अपनी तेजस्विता से परिवर्तन के लिए निर्णायक संघर्ष भी करती है। अपनी सन्तुलित सोच के साथ वह हमारे समकालीन नारी-विमर्श के लिहाज़ से भी एक विचारणीय प्रस्ताव लेकर आती है।
(https://rajkamalprakashan.com/divya.html)
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