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Dwandgeet

By: Material type: TextTextPublication details: Lokbharti Prakashan New Delhi 2024Edition: 3rdDescription: 126 pISBN:
  • 9788180313554
Subject(s): DDC classification:
  • 891.431 SIN
Summary: डॉ. नगेन्‍द्र दिनकर को द्वन्‍द्व का कवि मानते हैं। और सचमुच अपने द्वन्‍द्व की साधना में दिनकर जितने बड़े क्रान्ति के कवि दिखते हैं, उतने ही प्रेम, सौन्‍दर्य और करुणा के भी। यह विशेषता छायावादोत्तर युग में उनके अलावा अन्‍यत्र दुर्लभ है। ‘द्वन्‍द्वगीत’ में इन सबका सम्मिलित रूप देखने को मिलता है। इस पुस्‍तक में दिनकर ने द्वन्‍द्वात्‍मकता की ज़मीन पर जो पद-सृजन किया है, वह उनकी अभिधा और व्‍यंजना-अभिव्‍यक्ति में एक अलग ही लोक की रचना करता है। संग्रह के कई पदों से पता चलता है कि वे शोषित जन की पीड़ा के वाचक नहीं, उसे संघर्ष और सरोकारों के रंग में रँगनेवाले चितेरे हैं। कहते हैं—‘चाहे जो भी फ़सल उगा ले/तू जलधार बहाता चल।’ जो क्रूर व्‍यवस्‍था के शिकार हैं, उन्‍हें वे झुकते, टूटते नहीं देख सकते। उनकी नज़र में वही असली निर्माणकर्ता हैं, जिनको कुचलकर कोई तंत्र क़ायम नहीं रह सकता। इसलिए हुंकार भरते हैं कि ‘उठने दे हुंकार हृदय से/जैसे वह उठना चाहे/किसका, कहाँ वक्ष फटता है/तू इसकी परवाह न कर।’ दिनकर संवेदना और विचारों के घनत्‍व में सृजन को जीनेवाले रचयिता हैं। उन्‍हें मालूम है कि आज जो मूक हैं, एक दिन समझेंगे कि व्‍याध के जाल में तड़प-तड़पकर रहने को जीवन नहीं कहते। तभी तो यह उम्‍मीद रचते हैं—‘उषा हँसती आएगी/युग-युग कली हँसेगी, युग-युग/कोयल गीत सुनाएगी/घुल-मिल चन्द्र-किरण में/बरसेगी भू पर आनन्द-सुधा।’ इस संग्रह में प्रेम-सम्‍बन्धित भी कई पद हैं जिनमें शृंगार, मिलन और वियोग का भावनात्‍मक और कलात्‍मक अंकन हुआ है। उनमें अलंकारों का विलक्षण प्रयोग देखने को मिलता है—'दो अधरों के बीच खड़ी थी/भय की एक तिमिर-रेखा/आज ओस के दिव्य कणों में/धुल उसको मिटते देखा।/जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती/पलक उतरकर प्रात-विभा/जाग, लिखें चुम्बन से हम/जीवन का प्रथम मधुर लेखा।’ कहें तो यह एक ऐसा संग्रह है, जिसके पद पढ़े भी जा सकते हैं, गाए भी जा सकते हैं। हिन्‍दी काव्‍य-साहित्‍य में एक उच्‍च कोटि की पुस्‍तक है ‘द्वन्‍द्वगीत’। (https://rajkamalprakashan.com/dwandgeet.html)
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Book Book Indian Institute of Management LRC General Stacks Hindi Book 891.431 SIN (Browse shelf(Opens below)) 1 Available 008151
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891.431 SIN Ek pratidhwani ke liye 891.431 SIN Neem ke patte 891.431 SIN Renuka 891.431 SIN Dwandgeet 891.431 SIN Sipi aur shankha 891.431 SIN Pran-bhang tatha anya kavitayen 891.431 SIN Kavishree

डॉ. नगेन्‍द्र दिनकर को द्वन्‍द्व का कवि मानते हैं। और सचमुच अपने द्वन्‍द्व की साधना में दिनकर जितने बड़े क्रान्ति के कवि दिखते हैं, उतने ही प्रेम, सौन्‍दर्य और करुणा के भी। यह विशेषता छायावादोत्तर युग में उनके अलावा अन्‍यत्र दुर्लभ है। ‘द्वन्‍द्वगीत’ में इन सबका सम्मिलित रूप देखने को मिलता है।
इस पुस्‍तक में दिनकर ने द्वन्‍द्वात्‍मकता की ज़मीन पर जो पद-सृजन किया है, वह उनकी अभिधा और व्‍यंजना-अभिव्‍यक्ति में एक अलग ही लोक की रचना करता है। संग्रह के कई पदों से पता चलता है कि वे शोषित जन की पीड़ा के वाचक नहीं, उसे संघर्ष और सरोकारों के रंग में रँगनेवाले चितेरे हैं। कहते हैं—‘चाहे जो भी फ़सल उगा ले/तू जलधार बहाता चल।’ जो क्रूर व्‍यवस्‍था के शिकार हैं, उन्‍हें वे झुकते, टूटते नहीं देख सकते। उनकी नज़र में वही असली निर्माणकर्ता हैं, जिनको कुचलकर कोई तंत्र क़ायम नहीं रह सकता। इसलिए हुंकार भरते हैं कि ‘उठने दे हुंकार हृदय से/जैसे वह उठना चाहे/किसका, कहाँ वक्ष फटता है/तू इसकी परवाह न कर।’
दिनकर संवेदना और विचारों के घनत्‍व में सृजन को जीनेवाले रचयिता हैं। उन्‍हें मालूम है कि आज जो मूक हैं, एक दिन समझेंगे कि व्‍याध के जाल में तड़प-तड़पकर रहने को जीवन नहीं कहते। तभी तो यह उम्‍मीद रचते हैं—‘उषा हँसती आएगी/युग-युग कली हँसेगी, युग-युग/कोयल गीत सुनाएगी/घुल-मिल चन्द्र-किरण में/बरसेगी भू पर आनन्द-सुधा।’
इस संग्रह में प्रेम-सम्‍बन्धित भी कई पद हैं जिनमें शृंगार, मिलन और वियोग का भावनात्‍मक और कलात्‍मक अंकन हुआ है। उनमें अलंकारों का विलक्षण प्रयोग देखने को मिलता है—'दो अधरों के बीच खड़ी थी/भय की एक तिमिर-रेखा/आज ओस के दिव्य कणों में/धुल उसको मिटते देखा।/जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती/पलक उतरकर प्रात-विभा/जाग, लिखें चुम्बन से हम/जीवन का प्रथम मधुर लेखा।’
कहें तो यह एक ऐसा संग्रह है, जिसके पद पढ़े भी जा सकते हैं, गाए भी जा सकते हैं। हिन्‍दी काव्‍य-साहित्‍य में एक उच्‍च कोटि की पुस्‍तक है ‘द्वन्‍द्वगीत’।

(https://rajkamalprakashan.com/dwandgeet.html)

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