Neem ke patte

Singh, Ramdhari 'Dinkar'

Neem ke patte - 3rd - New Delhi Lokbharti Prakashan 2024 - 61 p.

ऊपर-ऊपर सब स्वाँग, कहीं कुछ नहीं सार,

केवल भाषण की लड़ी, तिरंगे का तोरण।

कुछ से कुछ होने को तो आज़ादी न मिली,

वह मिली ग़ुलामी की ही नक़ल बढ़ाने को।

'पहली वर्षगाँठ' कविता की ये पंक्तियाँ तत्कालीन सत्ता के प्रति जिस क्षोभ को व्यक्त करती हैं, उससे साफ़ पता चलता है कि एक कवि अपने जन, समाज से कितना जुड़ा हुआ है और वह अपनी रचनात्मक कसौटी पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं। यह आज़ादी जो ग़ुलामों की नस्ल बढ़ाने के लिए मिली है, इससे सावधान रहने की ज़रूरत है। देखें तो 'नीम के पत्ते' संग्रह में 1945 से 1953 के मध्य लिखी गई जो कविताएँ हैं, वे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की उपज हैं; साथ ही दिनकर की जनहित के प्रति प्रतिबद्ध मानसिकता की साक्ष्य भी। अपने दौर के कटु यथार्थ से अवगत करानेवाला ओजस्वी कविताओं का यह संग्रह दिनकर के काव्य-प्रेमियों के साथ-साथ शोधार्थियों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है, संग्रहणीय है।

(https://rajkamalprakashan.com/neem-ke-patte.html)

9789388211987


Hindi poetry

891.431 / SIN

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