000 | 04750nam a22001817a 4500 | ||
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005 | 20240228183052.0 | ||
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082 |
_a891.433 _bDES |
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100 |
_aDesai, Ranjeet _914736 |
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245 | _aShriman Yogi | ||
260 |
_bRadhakrishan Prakashan _aNew Delhi _c2023 |
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300 | _a991 p. | ||
365 |
_aINR _b999.00 |
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520 | _aश्रीमान योगी रणजीत देसाई की यह कालजयी रचना अपने मूल मराठी प्रकाशन के कुछ ही समय बाद मराठी भाषियों के बीच जातीय स्मृति ग्रन्थ जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त करने में सफल हुई है। जितनी कसावट से इस सुदीर्घ उपन्यास में मुगलकालीन दक्खिन का समय बुना गया है, जिस तरह इसमें सह्यादि क्षेत्र के मनुष्य तो क्या, पत्थर तक बोलते सुनाई देते हैं, उसे देखते हुए महाराष्ट्र में इसका इतना लोकप्रिय हो जाना स्वाभाविक है। लिहाजा इस उपन्यास का हिन्दी में प्रकाशन भी वैसी ही बड़ी घटना है, जैसी मराठी में इसके प्रथम प्रकाशन की घटना। जहाँ-तहाँ भटकने पर मजबूर एक विद्रोही मराठा सामंत की लगभग परित्यक्ता पत्नी अपने बेटे के व्यक्तित्व में अपनी और अपनी समूची जाति की पीड़ाएँ छाप देती है। हीरे-सा कड़ा और पानी सा तरल किशोर शिवाजी हिंदवी स्वराज्य का स्वप्न देखने का दुस्साहस करता है और यही दुस्साहस न सिर्फ उसका बल्कि उसके समूचे समय का भाग्य तय करने लगता है। तलवारों की खनखनाहटों के बीच धीरे-धीरे एक ऐसा चेहरा उभरता है, जिसके लिए जय-पराजय, जीवन-मृत्यु, लाभ-हानि का फर्क मिट चुका है, जो राजा भी है और योगी भी, जिसे समर्थ गुरु रामदास श्रीमान योगी कहते हैं। किसी महानायक को केन्द्र में रखकर उपन्यास-लेखन एक प्रचलित विधा रही है लेकिन कल्पना के हाथ हमेशा बँधे होने के चलते इसे सर्वाधिक कठिन विधाओं में से एक माननेवाले भी कम नहीं रहे हैं। महानायकों के इर्द-गिर्द जैसे मिथकीय घटाटोप बन जाते हैं, उन्हें भेद कर व्यक्ति की दैन्यताओं, दुर्बलताओं और द्वन्द्वों तक पहुँचना, उन्हें चित्रित करना बहुत कठिन हो जाता है। रणजीत देसाई की रचनात्मक शक्ति इसी बात में है कि वे शिवाजी की स्थापित मूर्ति के भीतर, उसकी अनन्त तहों में घुसते हुए सचमुच के शिवाजी और उनके धड़कते हुए समय तक पहुँच जाते हैं। वे महानायक को जैसे का तैसा स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसके जीवन-तत्त्वों से उसकी पुनर्रचना करते हैं। (https://rajkamalprakashan.com/shreeman-yogi.html) | ||
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