000 | 02811nam a22001937a 4500 | ||
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005 | 20240311142028.0 | ||
008 | 240222b |||||||| |||| 00| 0 eng d | ||
020 | _a9788119159253 | ||
082 |
_a891.43 _bSIN |
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100 |
_aSingh, Namvar _914679 |
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245 | _aKitabnama | ||
260 |
_bRajkamal Prakashan _aNew Delhi _c2023 |
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300 | _a535 p. | ||
365 |
_aINR _b499.00 |
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520 | _aनामवर सिंह पाठ से गहरा, आत्मीय और संवादी तादात्म्य स्थापित कर सकने वाले आलोचक थे। अपने व्याख्यानों और साक्षात्कारों में वे उपन्यासों, कहानियों, कविताओं, निबन्धों, नाटकों और आलोचना-निबन्धों पर जिस तरह बात करते थे, उससे इसकी पुष्टि होती है। पाठ का आस्वाद करने की क्षमता आलोचक के संवेदनात्मक आधारों पर निर्भर करती है और उसका विवेचन कर पाने की शक्ति उसकी ज्ञानात्मक तैयारी पर। यदि वह अपनी तैयारी के दौरान अन्तरानुशासित होकर जीवन-जगत को देखने की दृष्टि विकसित कर पाया है, तभी वह रचना के पाठ के जीवन-जगत में फैले आधारों को देख पाएगा। प्रत्येक कृति अन्तत: एक विशिष्ट भाषा, उसकी साहित्यिक परम्परा और विधागत विरासत से संबद्ध होती है। एक परम्परा-सजग आलोचक ही इस बात की पहचान कर सकता है कि रचना परम्परा में कहाँ और किस वैचारिक-सौन्दर्यात्मक धारा में स्थित है। नामवर सिंह एक आलोचक के रूप में ‘पाठ’ से ऐसा गहरा और संवादी रिश्ता बना पाते थे, जहाँ उनकी ये सारी खूबियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं। (https://rajkamalprakashan.com/kitabnama.html) | ||
650 |
_aLiterary criticism _916460 |
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650 |
_aCriticism _916461 |
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942 |
_cBK _2ddc |
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999 |
_c6550 _d6550 |