000 | 03427nam a22001937a 4500 | ||
---|---|---|---|
005 | 20240129203045.0 | ||
008 | 240129b |||||||| |||| 00| 0 eng d | ||
020 | _a9788126726783 | ||
082 |
_a891.4309 _bVAT |
||
100 |
_aVatsayayan, Sachchidanand Hiranand 'Ajneya' _914889 |
||
245 |
_aShekhar: _bek jeevani (Sangharsh) |
||
250 | _a9th ed. | ||
260 |
_bRajkamal Prakashan Pvt. Ltd. _aNew Delhi _c2023 |
||
300 | _a255 p. | ||
365 |
_aINR _b350.00 |
||
520 | _a‘शेखर : एक जीवनी’ को कुछ वैचारिक हलक़ों में आत्म-तत्त्व के बाहुल्य के कारण आलोचना का शिकार होना पड़ा था। साथ ही अपने समय के नैतिक मूल्यों के लिए भी इसे चुनौती की तरह देखा गया था। लेकिन आत्म के प्रति अपने आग्रह के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि ‘शेखर’ समाज से विलग, या उसके विरोध में खड़ा हुआ कोई व्यक्ति है। अगर ऐसा होता तो शेखर अपने समय-समाज के ऐसे-ऐसे प्रश्नों से नहीं जूझता जो उस समय स्वाधीनता आन्दोलन के नेतृत्वकारी विचारकों-चिन्तकों के लिए भी चिन्ता का मुख्य बिन्दु नहीं थे, मसलन—जाति और स्त्री से सम्बन्धित प्रश्न। जैसा कि स्वयं अज्ञेय ने संकेत किया है, शेखर अपने समय से बनता हुआ पात्र है। वह परिस्थितियों से विकसित होता हुआ और परिस्थितियों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हुआ पात्र है। उपन्यास के प्रथम भाग में जिस तरह से शेखर का मनोविज्ञान, उसके अन्तस्तल के निर्माण की प्रक्रिया उद्घाटित हुई है, उसी आवेग और सघनता के साथ इस दूसरे भाग में शेखर के वास्तविक जीवनानुभवों का वर्णन किया गया है। कहना न होगा कि 'शेखर एक जीवनी’ की बुनावट में ‘पैशन’ की वैसी ही उच्छल धारा प्रवाहित है जैसी, हमारे जीवन में होती है। अपने औपन्यासिक वितान में ‘शेखर : एक जीवनी’ इसीलिए एक कालजयी कृति के रूप में मान्य है। (https://rajkamalprakashan.com/shekhar-ek-jeevani-part-2.html) | ||
650 |
_aNovel _913491 |
||
942 |
_cBK _2ddc |
||
999 |
_c6518 _d6518 |