000 | 01724nam a22002057a 4500 | ||
---|---|---|---|
999 |
_c4783 _d4783 |
||
005 | 20230317170821.0 | ||
008 | 230317b ||||| |||| 00| 0 eng d | ||
020 | _a9788183619172 | ||
082 |
_a891.433 _bSHI |
||
100 |
_aShivani _911081 |
||
245 | _aKrishnakali | ||
260 |
_bRadhakrishan Prakashan _aNew Delhi _c2020 |
||
300 | _a231 p. | ||
365 |
_aINR _b250.0 |
||
520 | _aजब ‘कृष्णकली’ लिख रही थी तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, सब कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था। जहाँ कलम हाथ में लेती, उस विस्तृत मोहक व्यक्तित्व को, स्मृति बड़े अधिकारपूर्ण लाड़-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मैटीरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी। ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी। जब लिख रही थी तो बार-बार उनके मांसल मधुर कंठ की गूँज कानों में गूँज उठती। | ||
650 |
_aIndic fiction _92822 |
||
650 |
_aHindi fiction _912352 |
||
650 |
_aHindi fiction--Women authors _912353 |
||
942 |
_2ddc _cBK |