Muktibodh ki kavitaai
- New Delhi Radhakrishna Prakashan 2023
- 3rd
मुक्तिबोध के कला-सिद्धान्त कविता को एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया मानते हैं, उनकी कविताई इसका जागता जीता प्रमाण है। उनकी कविताई में भ्रमों से परिपूर्ण युगीन यथार्थ का जीवन-जाल तो मिलता है, पर उसकी बुनावट में रचनागत अर्थ का कोई भ्रम नहीं है।
जो महानुभाव कविता को प्राय: एक कलात्मक या शिल्पात्मक प्रक्रिया समझते हैं, उनके लिए तो मुक्तिबोध की कविताएँ निश्चित रूप से ‘जटिल’, ‘अधूरी’, ‘आत्मपरक अभिव्यक्ति’, ‘भयानक’ या ‘ऊबड़-खाबड़’ हो सकती हैं, किन्तु यदि हम मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रियापरक समझ से परिचित हो लें और उनके सूत्र—‘कला एक सामाजिक प्रक्रिया है’—को आधार मानकर उनकी रचनाओं में जाने की कोशिश करें, तो प्रत्यक्ष पाते हैं कि मुक्तिबोध शब्द के असामाजिक प्रयोग के कवि नहीं थे। हाँ, इतना तो है ही कि उनके कथ्य की सार्थकता तभी पकड़ में आ पाती है, जब हम कविता के बारे में उनके स्वयं के दृष्टिकोण से रूबरू हो लें। ऐसा अगर हम कर लें तो उस ग़लती से भी बचा जा सकता है जो मुक्तिबोध के सन्दर्भ में जाने या अनजाने होती आ रही है।
इस पुस्तक में मुक्तिबोध की सैद्धान्तिक समीक्षाई के आधार पर उनकी छोटी-बड़ी ग्यारह प्रमुख कविताओं की व्यावहारिक समीक्षा की गई है। साथ ही एक साफ़-सुथरा रास्ता बनाने की कोशिश है कि जिस रास्ते पर चलकर मुक्तिबोध की कविताई तक पहुँचा जा सकता है।
अशोक चक्रधर मुक्तिबोध की कविताओं पर कार्य करनेवाले प्रारम्भिक लेखकों में गिने जाते हैं। यही कारण कि उनकी यह पुस्तक आज भी पाठकों के बीच अपने कई कारणों से अत्यन्त उपयोगी बनी हुई है।